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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सफलता के सात सूत्र साधन

सफलता के सात सूत्र साधन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4254
आईएसबीएन :0000

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विद्वानों ने इन सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है, वे हैं- परिश्रम एवं पुरुषार्थ ...


अनुन्नतिशील व्यक्तियों की संतानें उचित मार्गदर्शन मिलने पर ही इस पैतृक दोष को त्यागकर उन्नतिशील हो पाती हैं। अन्यथा, वे भी अधिकतर यह मानसिक जड़ता विरासत में पाकर उसकी परंपरा बनाए रखती हैं। इसके लिए उन बेचारों को कोई दोष भी नहीं दिया जा सकता। वे तो स्वाभावतः पिता का ही अनुसरण करेंगे। जो कुछ सामने देखेंगे और जिन संस्कारों को पाएँगे, उन्हीं के अनुसार, गतिशील होंगे। जिस व्यवसायी के पास कारोबार को आगे बढ़ाने की न तो कल्पना है और न इच्छा, जिज्ञासा, वह भला अपने पुत्र को अपनी प्रेरणा दे भी कैसे सकता है ? और यदि पुत्र अपनी किसी मौलिकता को प्रकट करता, तो परिवर्तन अथवा मोड़ लाने का साहस करता भी है तो उसका असाहसी पिता हानि अथवा बिगाड़ के भय से उसे निरुत्साहित करने में ही बुद्धिमानी समझता है। आगे निकलकर, पैर बढ़ाकर, परिवर्तन लाकर अथवा खतरा उठाने का साहस दिखलाकर व्यवसाय की उन्नति का प्रयत्न करना, वह अनियंत्रित उच्छृंखलता के समान अनुचित एवं अवांछनीय मानता है। उसे तो उसी अनुन्नत दशा में पड़े रहकर, उसी फटे-पुराने व्यवसाय को उसी प्रकार घिस-घिस कर चलाते रहने में ही सुरक्षा एवं कल्याण दिखाई देता है। आलस्यजन्य, तामसी संतोष में वह अपनी आध्यात्मिक खूबी समझता है। फटा-पुराना, गंदा-गलीज पहनकर, उल्टा-सीधा, मोटा-झोटा पेट अधा पेट खा-पीकर और टूटे-फूटे, मैले-कुचेले साधन शून्य घर में चुपचाप बिना किसी उत्साह-उल्लास के जिंदगी काट डालने में बड़ी बहादुरी समझते हैं, जबकि यह आलस्य एवं जड़ताजन्य अभाव का अभिशाप है।

यदि ऐसे निरीह अथवा निस्पृह व्यक्तियों का मनोऽन्वेषण किया जाए तो न जाने इस मरघट में कामनाओं की कितनी सडी लाशें ईष्र्या, द्वेष, तृष्णा एवं वितृष्णाओं, डाक एवं दुर्भावनाओं के कितने काले विषधर निकल पड़े। अपने दुर्गुणों के कारण अभाव एवं दयनीयता से ग्रस्त व्यक्ति के मन में आध्यात्मिक महनीयता का कोई अंकुर कैसे उपज सकता है ? जो अकर्मण्य अथवा असाहसी व्यक्ति अपना लोक नहीं सुधार सकता वह परलोक के सुधार में तत्पर माना जाए यह जो अजीब-सी बात है। जो इस लोक में सफलताओं के नए-नए दिगंत छू नहीं सका, वह उस लोक के सुधारने, वहाँ सफलता पाने में क्या समर्थ होगा ?

जीवन-जड़ मनुष्य अपरूपता एवं असंगतियों के बड़े पोषक होते हैं और उन्हें अपने इस दुर्गुण में संकोच भी नहीं होता। जिस कुरूप दशा में घर में हैं उसी में दफ्तर, दुकान अथवा सभा निमंत्रणों में चले गए। देश काल के अनुसार अपनी दशा सुधारने की जरा भी जरूरत नहीं समझते, उन्हें उस स्थान में एक धब्बे की तरह चिपक जाने में जरा भी ग्लानि नहीं होती। पास-पडौस आमने-सामने की दुकानें मकान तरक्की कर रहे हैं, उन्नत, विकसित एवं सुंदर होते जा रहे हैं किंतु उनके बीच वे एक विजातीय तत्त्व की तरह विद्रूपता तथा विसंगति को लिए स्थापित हैं। उन्हें यह सब देखकर भी कुछ परिवर्तन लाने का विकास अथवा सुधार करने का उत्साह नहीं होता। माना उनके साधन की ससीमता और समाज उन्हें मजबूर करता है, वे ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ बड़े-बड़े सौध-प्रसादों का निर्माण नहीं कर सकते किंतु अपने घर दुकानों को झाड़-बुहार कर लीप-पोत कर, झाड़-झंखाड़ और कूड़ा-कर्कट हटाकर, उनकी खपरैल, छप्पर अथवा छानों को व्यवस्थित तथा सहेज सुधार कर साफ-सुथरा तो बना ही सकते हैं।

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    अनुक्रम

  1. सफलता के लिए क्या करें? क्या न करें?
  2. सफलता की सही कसौटी
  3. असफलता से निराश न हों
  4. प्रयत्न और परिस्थितियाँ
  5. अहंकार और असावधानी पर नियंत्रण रहे
  6. सफलता के लिए आवश्यक सात साधन
  7. सात साधन
  8. सतत कर्मशील रहें
  9. आध्यात्मिक और अनवरत श्रम जरूरी
  10. पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें
  11. छोटी किंतु महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखें
  12. सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
  13. अपने जन्मसिद्ध अधिकार सफलता का वरण कीजिए

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